भारत में बाँसुरी का इतिहास
बाँसुरी वाद्य क्या है ?
भरतमुनि द्वारा संकलित नाट्यशास्त्र में ध्वनि की उत्पत्ति के आधार पर संगीत वाद्यों को चार मुख्य वर्गों में विभाजित किया गया है।
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1. तत् वाद्य अथवा तार वाद्य
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2. सुषिर वाद्य अथवा वायु वाद्य ( हवा के वाद्य )
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3. अवनद्व वाद्य और चमड़े के वाद्य ( ताल वाद्य ; झिल्ली के कम्पन वाले वाद्ययंत्र )
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4. घन वाद्य या आघात वाद्य ( ठोस वाद्य, जिन्हें समस्वर स्तर में करने की आवश्यकता नहीं होती। )
बाँसुरी वाद्य सुषिर वाद्य परिवार का एक सदस्य है ।
जिसका अर्थ है बाँस से निर्मित एक सुषिर वाद्य ।
आज उतर भारतीय संगीत में बांस से निर्मित बांसुरी एक अति
महत्वपूर्ण वाद्य यंत्र है और यह वाद्य यंत्र हिंदू धर्म से बड़ा गहरा रिश्ता
भी रखता है,क्यूँकि भगवान कृष्ण की कल्पना बाँसुरी के बिना करना असंभव है,लेकिन कृष्ण के बाद, भारत में बाँसुरी सदियों से खोयी खोयी सी रही और मौन हो गयी। बांसुरी केवल लोक संगीत और गाय चराने वाले चरवाहो तक ही सीमित रह गयी थी।
परंतु उन्ननीसवी शताब्दी में एक ऐसे व्यक्ति ने जन्म लिया जिसने बांसुरी को लोक वाद्य तक सीमित न रखकर, उसका उपयोग शास्त्रीय संगीत के अनुरूप किया और भारतीय संगीत में एक नवीन वाद्य यंत्र "बांसुरी" स्थान दिया। और वो महान व्यक्ति थे पंडित पन्ना लाल घोष।
Chinmay gaur
बाँसुरी पर 12 स्वरों की स्थापना
याद रहे ,संगीत में सा और प अचल होते हैं जो अपना स्थान कभी नहीं छोड़ते या जो चलायमान नहीं है,अन्य बचे हुए सुर चल स्वर कहलाते है जो अपने स्थान से थोड़ा नीचा या ऊँचा भी हो सकते है।
शुद्ध स्वर - सा रे ग म प ध नी
विकृत स्वर - कोमल (अपने स्थान से नीचे) - रे ग ध नी
तीव्र (अपने स्थान से ऊपर ) - म
चिन्ह
कोमल स्वर के लिए स्वर कि नीचे रेखा जैसे रे ग ध नी
तीव्र स्वर केवल म है उसका चिन्ह है म कि ऊपर सीधी रेखा जैसे - म
छिद्र बंद
बाँसुरी पर कोमल स्वर रे ग ध नी को बजाने कि लिए अपनी उँगले से छिद्र का आधा बंद करना पड़ता है।
और तीव्र मध्यम कि लिए छिद्र खोलना पड़ते है ।
सा
रे
रे
ग
ग
म
मे
प
ध
ध
नी
नी
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